रायबरेली : प्रदेश में अधिकतर रेशम उत्पादक किसान सीमांत और लघु कृषक होते हैं। खाद्यान्न की आवश्यकता के दृष्टिगत किसानों ने खेतीबाड़ी की पुरानी परम्पराओं को अभी तक अपनाया हुआ है। रेशम उत्पादन की पद्धतियों को भी देखा जाय तो यही बात सामने आती है कि अधिकतर किसान पुराने तरीकों को छोड़ने के लिए राजी नहीं होते हैं। इसलिए जरूरी है उनकी भूमि के एक भूखंड से ही कृषि विविधता लाकर आमदनी बढ़ाई जाय। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रदेश सरकार ने शहतूत वृक्षारोपण का एक सहफसली प्रारूप केंद्रीय रेशम उत्पादन अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान पांपोर केंद्रीय रेशम बोर्ड द्वारा तकनीकी स्थानांतरण हेतु स्वीकृत किया है।
किसान अपनी कृषि युक्त भूमि पर इस प्रकार से शहतूत वृक्षारोपण करते हैं कि परंपरागत कृषि कार्य भी चलता रहे और रेशम कीट पालन हेतु उसी खेत से उच्च गुणवत्ता युक्त शहतूत की पत्तियों भी प्राप्त हो रही है। केवल पहले वर्ष में नियमित पैदावार लगभग 20 प्रतिशत प्रभावित होगी, दूसरे वर्ष से इसी खेत से अतिरिक्त आय आनी शुरु हो जाती है। यदि कोई किसान अपने खेत में 300 शहतूत के पेड़ नयी पद्धति से लगा ले और केवल दो फसलों में पत्ती बेचने (रु0 4 प्रति किलो की दर से) का काम करे तो भी वह दूसरे वर्ष में लगभग 5 हजार रूपये एवं अगले 4-5 वर्षों से इसी खेत से वह लगभग 18000 रूपये वार्षिक की अतिरिक्त आय, केवल पत्ती बेच कर प्राप्त कर सकता है।
किसान इसी शहतूत उद्यान से साल में दो फसल भी बाइवोल्टाईन रेशम कीटपालन का कार्य करता है तो उचित उत्पादन के साथ वह दूसरे साल से 10 हजार रूपये का कोया उत्पादन कर सकता है और चौथी पाँचवी साल में वह 30-35 हजार मूल्य का रेशम कोया, 300 शहतूत पेड़ो की उचित रखरखाव और सफल कीटपालन से उत्पादित कर सकता है। अगर कोई किसान अपने खेत में गेहूं और मक्के की खेती कर रहा है और इसी खेत में शहतूत के पेड़ भी लगा देते हैं तो अगले 4-5 वर्षों में इसी खेत से किसान विशाल रेशम कीटपालन के साथ अपनी कुल आय दुगुनी कर सकता है। उचित लाभ प्राप्ति हेतु कम से कम 100 पेड़ भी स्थापित किए जा सकते है, पर 300 पेड़ का उद्यान स्थापित हो तो आर्थिक लाभ हेतु उत्तम रहता है। जितने अधिक पेड़ होंगे उसी अनुपात में पत्ती एवं तदनुसार रेशम कोया का उत्पादन अधिक होगा।
यदि किसी किसान के पास जमीन कम है पर वह अधिक पेड़ लगाना चाहता है तथा रेशम कीटपालन से अधिक आय प्राप्त करना चाहता है, तो वह मेड़ के बाद खेत के बीच में सीधी कतार में पेड़ लगा सकता है, खेत की चौड़ाई के अनुसार कतार की संख्या निर्धारित होती है, क्योंकि दो कतारों के बीच में कम से कम 18 फीट की दूरी होनी चाहिए। इस प्रकार से एक खेत में परम्परागत खेती को प्रभावित किए बगैर किसान अपने लिए अतिरिक्त आय का एक सशक्त माध्यम कम से कम अगले 20-25 साल तक आसानी से कर सकता है। इस पद्धति से एक एकड़ जमीन में 300 शहतूत पेड़ लग सकते है। भूमि की उपलब्धता के आधार पर 100 पेड़ से 300 पेड़ तक का शहतूत उद्यान आसानी से स्थापित किया जा सकता है। प्रदेश के हजारो किसान सहफसली खेती कर खाद्यान्न के साथ-साथ रेशम के कोया उत्पादन कर अपनी अतिरिक्त आमदनी प्राप्त कर रहे हैं।